Sunday, November 13, 2011

कहाँ उर्दू का हुस्न, कहाँ तेरा ग़ालिब...... की मेरे मुल्क से, अब कहाँ अलफ़ाज़ यूँ निकले...

- मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib)
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले
निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले
भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले
मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले
हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले
मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले
जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले
खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले
कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

Wednesday, September 7, 2011

"सदैव प्रसन्न रहना इश्वर की सर्वोपरि भक्ति है"

एक पुरानी पंक्ति याद आई... कितनी सच है यह!

"सदैव प्रसन्न रहना इश्वर की सर्वोपरि भक्ति है"


Thursday, July 29, 2010

गुलज़ार जी की कलम से..

अधिकतर मेरा प्रयास रहता है की मैं यहाँ कुछ अपनी रचनाएँ पेश करूँ, परन्तु कभी कभी कुछ सुन्दर पंक्तियाँ मिल जाएँ तो सुनाने में क्या हर्ज़ है??:


"वो कटी फटी हुई पत्तियां, और दाग़ हल्का हरा हरा!
वो रखा हुआ था किताब में, मुझे याद है वो ज़रा ज़रा|

मुझे शौक़ था के मिलूं तुझे, मुझे खौफ़ भी था कहूंगा क्या!
तेरे सामने से निकल गया, बडा सहमा सहमा डरा डरा|



बडा दोगला है ये शख्स भी, कोइ ऐतबार करे तो क्या
ना तो झूठ बोले कवि कभी, ना कभी कहे वो खरा खरा|"



- रचयिता: गुलज़ार (फेसबुक, २८ जुलाई २०१०)

Friday, September 25, 2009

ज़िन्दगी और पल

कुछ यादों के पल, कुछ इरादों के पल
बनते- बिगड़ते वादों के पल


पलों की झुरमुट में ज़िन्दगी का आशियाना 
भीगते गुलाबों में मासूमियत का तराना
कुछ तरानों के पल, कुछ निशानों के पल
प्यार के अनगिनत फसानों के पल 


ज़िन्दगी कभी आंसूओं की बारिश में लहकती 
फिर कभी झूमती बहारों सी महकती 
कुछ ऐसी-ही बहारों के पल, और कुछ साथ अंगारों के पल
सब उस खुदा की नेमत, बस उसी के नजारों के पल


उम्र-से लंबे पलों, किस्सों की कहानी
किस्सों-सी बदलती उम्र की जुबानी
कुछ इम्तिहानो के पल, कुछ बस बहानों के पल
कुछ सच्चे- झूठे यारानों के पल
...
..
.
पलों की ज़िन्दगी... पलों सी ज़िन्दगी
पलों में बीतती, पलों में ठहरती 
पलों में बनती, बिखरती, टूटती, संवरती......


कभी इठलाती, शर्माती... कभी मुस्कुराती...
कभी बरसती यूँ की बस आखिरी सावन हो ये 
कभी हंसती यूँ की बस रोना सीखा ही ना हो


रेत कसी मुट्ठी-से पागलों से पल 
ज़िन्दगी की दौलत, बादलों से पल 


- अ 
सितम्बर २५, २००९
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नीचे की पंक्तियाँ, इस कविता पर कविता है..


"शायद सही अंत नहीं पता मुझे इस रचना का
जब मिल जाएगा तब शेष करूंगी..
पर मुसीबत ज़िन्दगी की यह हैं हुज्रूर
जब बीत जाऊंगी, तब कैसे (!) इसकी कहानी कहूँगी! ..."










Friday, September 18, 2009

स्वप्न परों पर ...

जीवन में सभी स्वप्न साकार नहीं हो पाते, कुछ अधूरे रह जाते हैं, कुछ टूट कर बिखर जाते हैं, कुछ हमारी दिनचर्या में ही कहीं खो जाते हैं.... इसलिए आज जो अपना स्वप्न जी रही हूँ, उससे श्वासों में समेट लेना चाहती हूँ... यह रचना है उस स्वप्न के प्रारंभ के लिए...

रहने दो इस स्वप्न में मुझे तुम
अब सुबह होने न पाए

कहने दो हर बात अभी तुम
यह शब्द कहीं खोने ना पाएं

तुमसे जो हम आज जुड़े हैं
यह स्नेह कभी कम होने ना पाए

ऋतु आये ऋतु जाए लेकिन
मन तृप्त रहें, भरने ना पाए

जीवन की बरखा में हम यूँ हीं
चलते रहें, गंतव्य न पाएं

आँखों में सदा रहें यह आँखें
हंसें, खिलें, खिलखिलाती जाएँ...

- अ १८ सितम्बर २००९

Friday, September 11, 2009

बरखा

ओ बरखा प्यारी सी रिम झिम
ओ बारिश प्यारी सी रूम झुम

कभी बिजली से हमे डराती
कभी रूठ कर भाव दिखाती

पल्लवों की सेज सजाती देख देख
फिर उन्हें इठलाती

कभी हंसाती, कभी रुलाती
कैसे कैसे भाव जगाती

मेघों की यह नृत्य नाटिका
मेरे मन को खूब रुझाती

-

Tuesday, June 2, 2009

तस्वीर

कभी गुलाबी, कभी सुनहरी

थोडी सुबह, थोडी सी दुपहरी

तस्वीरों में यादें तेरी

बीते पल, होती हैं गहरी

- अ